सुबह की ये मन्द मन्द सी गरमी
ना जाने क्यों अपने साथ ये ठंडी हवाएं लाती है,
उड़ा लेना चाहती हैं शायद मुझे अपने साथ
क्यों ये मुझे इतना भाती हैं?
चेहरे पर रौशनी पड़ती है जब सूरज की
खुद ब खुद आँखों का परदा गिरता है तेरी याद में :
दूर इतने तू…
दूर इतने तू की मुझतक तेरी आवाज़ें भी न पहुंचे
ज़रुरत भी क्या है..
इन हवाओं से ही तो अब हमारी मुलाकातें होती हैं ।
दिल को ऐसे पिघलाती है ये ठंडी हवा
जैसे कानों को कोयल के मीठे बोल सुन गए हों,
कौन न सुन ना चाहे इनको?
शायद इसीलिए दीवारों के भी कान होते हैं(?)
सुबह उठकर तुझे याद करता था मैं
यादों में बातें थी, या बातों में यादें ?
इस दिल के सन्नाटे को अब मैं
सुनकर भी अनसुना कर देता हूँ,
अब मैं तुझे याद नहीं करता
अब मैं चाय गरम पीता हूँ ।